मैं अकेला ही चला था

मैं अकेला ही चला था मैं अकेला ही भला था

साथ का समझौता हमें ना रास आया,
बिन प्रयोजन कौन किसके पास आया ?
साथ सालों साल चल भी भरोसा ना हुआ जब,
भीड़ में भी एकला ही मुझे चलना पढ़ा तब

तब…
तब…
तब समझ आया…

मैं अकेला ही चला था मैं अकेला ही भला था

आस फिर मैं क्या करूँ उन जनों से
जो स्वयं ही हैं अधूरे अनुभवों से
चाह कर भी साथ मेरा दे सके ना
उन ह्रदय के हार की झालरों से

तब…
तब…
तब समझ आया…

मैं अकेला ही चला था मैं अकेला ही भला था

जब सफल सीढ़ियों पर चढ़ रहा था
देख मेरा आत्मबल वो जल रहा था
तब जरूरत थी तुम्हारी संवेदना की
भीड़ के व्यामोह में वो भी नहीं दीं

तब…
तब…
तब समझ आया….

मैं अकेला ही चला था मैं अकेला ही भला था

Vipin Jain
13/5/2018

इन चोदह सालों में मैंने

इन चौदह सालों में मैंने,
रिमझिम रिमझिम बारिश देखी।
धूप छांव सी घटती बढ़ती,
तेरी निर्मम ममता देखी।।

खूब भीड़ पर सूनी राहें,
झूंठी सच्ची आहें देखी ।
अपनों द्वारा अपनेपन की,
उड़ी धज्जियाँ हमने देखीं।।

वह यौवन भी देखा जिसमें,
रंग बिरंगे फूल खिले थे।
लेकिन धूप अधिक होने से,
वे भी मुरझाने के आदी थे ।।

जो भी मिला भीख मे मुझको,
कह ‘प्रसाद’ खुद को भरमाया।
लेकिन यह भ्रम का नाटक भी,
ज्यादा दिन तक काम ना आया।।

यही बात सबसे अच्छी थी,
जिसने मुझे मुक्त कर डाला।
सूद सहित सम्मान ले लिया,
औ उलाहना भी दे डाला।।

तब जाकर सद्बुद्धि आयी,
मंत्र सुखद सुख का वो लायी ।
हो निरपेक्ष पेक्ष चेतन को,
फिर केवल निज सत्ता भायी।।

अब ना राग द्वेष उपजेंगे,
सीख सुखद निज में पहुंचेंगे।
जिस पथ से पा जाऊं खुद को,
उसको सत्पथ पथ्य कहेंगे ।।

Vipin Jain
11/4/19

हां मैं बदल रहा हूँ

हाँ मैं बदल रहा हूँ
ये बदलाव मैं महसूस भी कर रहा हूँ
अब ये जरूरी है या मजबूरी है वो नहीं पता
पर मैं बदल रहा हूँ

ये बदलाब अचानक नहीं आया है
ना जाने कितनी उम्मीदें नाउम्मीद हुई हैं
ना जाने कितने बसंत पतझड़ में बदले हैं
तब जाकर अन्तर्मन बोल उठा है
कब तक औरों को बदलने का भाव बहेगा
अब तो खुद बदल जाना ही ठीक रहेगा

दरसअल…दअरसल
मुझे वैशाखियों से लगाव हो गया था
डर लगता था इनके बिना चल ही नहीं पाउँगा,
इनके बिना जगह जगह ठोकरें खाऊंगा।
पर अब दौड़ने की कोशिश कर रहा हूँ ,
खुद के पैरों से खुद ही लड़ रहा हूँ।

पर…पर
वैशाखियों को ये बर्दाश्त नहीं हो रहा है,
मेरा यूं चलना रास नहीं आ रहा है।
उनका कहना है हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी हमारे बिना ?,
दो कदम भी चलने की इस दुनियां में सहारे बिना।
सच पूछो तो बस इसी धमकी ने चलना सिखा दिया,
अपने अंदर की शक्ति का अहसास दिला दिया।

उम्मीद करता हूँ अब कोई उम्मीद ना रहे
अपने और पराये का कोई भेद ना बहे
राग द्वेष की आंधी से बचता रहूं
सत्पथ पर चलता रहूं….
सत्पथ पर चलता रहूं….
सत्पथ पर चलता रहूं…..

Vipin Jain
11/4/19

पथ भूल न जाना

पथ भूल न जाना पथिक कहीं
पथ में कांटे तो होंगे ही
दुर्वादल सरिता सर होंगे
सुंदर गिरि वन वापी होंगे
सुंदरता की मृगतृष्णा में
पथ भूल न जाना पथिक कहीं।

जब कठिन कर्म पगडंडी पर
राही का मन उन्मुख होगा
जब सपने सब मिट जाएंगे
कर्तव्य मार्ग सन्मुख होगा
तब अपनी प्रथम विफलता में
पथ भूल न जाना पथिक कहीं।

जब अपने भी विमुख पराए बन
आंखों के आगे आएंगे
पग पग पर घोर निराशा के
काले बादल छा जाएंगे
तब अपने एकाकीपन में
पथ भूल न जाना पथिक कहीं।

रण भेरी सुन कर विदा विदा
जब सैनिक पुलक रहे होंगे
हाथों में कुमकुम थाल लिये
कुछ जलकण ढुलक रहे होंगे
कर्तव्य प्रेम की उलझन में
पथ भूल न जाना पथिक कहीं।

कुछ मस्तक काम पड़े होंगे
जब महाकाल की माला में
मां मांग रही होगी अहूति
जब स्वतंत्रता की ज्वाला में
पल भर भी पड़ असमंजस में
पथ भूल न जाना पथिक कहीं।

∼ शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

हम उन्मुक्त गगन के पंक्षी

हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाएँगे,

कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाएँगे।

हम बहता जल पीनेवाले
मर जाएँगे भूखे-प्यास,

कहीं भली है कटुक निबौरी
कनक-कटोरी की मैदा से।

स्वर्ण-शृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,

बस सपनों में देख रहे हैं
तरु की फुनगी पर के झूले।

ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नीले नभ की सीमा पाने,

लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक-अनार के दाने।

होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,

या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती साँसों की डोरी।

नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,

लेकिन पंख दिए हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो।

∼ शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

बहुत नहीं थे सिर्फ चार कौए थे

बहुत नहीं थे सिर्फ चार कौए थे काले
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खायें और गायें
वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनायें ।

कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरूड़ और बाज हो गये ।

हंस मोर चातक गौरैयें किस गिनती में
हाथ बांधकर खडे़ हो गए सब विनती में
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें
पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गायॆं ।

बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को

कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आये उनके जी में
उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने वाले सिर्फ रह गये बैठे ठाले ।

आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है
उत्सुकता जग जाये तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना ।

– भवानीप्रसाद मिश्र